कवि अशोक प्रियबंधु
मुक्तक
पत्थर की मूरत भी पिघल सकती है,
सख्त हृदय से करुणा निकल सकती है.
मनुज ठान ले मन में भला करने को,
तो हाथों की लकीर बदल सकती है.
*स्वरचित- अशोक प्रियबंधु
हजारीबाग, झारखंड*
1 comment:
कवि अशोक प्रियबंधु
May 17, 2020 at 12:34 AM
waah
Reply
Delete
Replies
Reply
Add comment
Load more...
Newer Post
Older Post
Home
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
समय सबके पास 24 घंटे
मुक्तक
*स्वरचित- अशोक प्रियबंधु हजारीबाग, झारखंड*
धीरज धर मुसाफ़िर
धीरज धर मुसाफ़िर, सुखद मंजिल बहुत दूर है. पंख विहीन खग की तरह तू बहुत मजबूर है. विपदा की घड़ी में साथ देता है यहाँ कौन. इंसां हो गया आ...
माँ
किसको मैं बेगाना समझूँ, हर सूरत तेरी सूरत है. सब दृश्य में तुम्हीं रमी हो, हर मूरत तेरी मूरत है. माँ शब्द में त्रिलोक समाया, स...
मुक्तक
*स्वरचित- अशोक प्रियबंधु हजारीबाग, झारखंड*
waah
ReplyDelete