मुक्तक.. जिन्दगी है क्या.



जिन्दगी है क्या, सुख-दु:ख की कहानी है,
मात्र  कुछ  श्वासों की  धड़कती  रवानी है.
रचेता  चाहे  जो  भी  हो  भव- सागर का,
उसी  सागर  का  यह  एक  बूंद  पानी  है.
जिन्दगी है क्या..

यह पानी उड़कर कभी बन जाता बादल,
पुनः बरसता, आता धरा पर, बनकर जल.
ऐसा   ही  विधान  है  हमारे  जीवन  का,
इसी  क्रम  में  मरती  नहीं  जिन्दगानी  है.
जिन्दगी है क्या..

तन का क्या माटी का प्रज्वलित दीया है,
जब तक तेल-बाती है, तब तक जीया है.
पुनः माटी  में  मिलता  और  जनमता  है,
इसी  प्रकार  काया की  आनी- जानी  है.
जिन्दगी है क्या..

फिर गम क्या उसकी,जिसकी काया जली है,
अहो!  उसने  तो अपनी   काया   बदली  है.
वो  पुनः  आएगा  शिशु  बनकर  आंगन  में,
वह  तो  ब्रह्म- रूप  जीव  चिर   वरदानी  है.

जिन्दगी है क्या, सुख- दु:ख की कहानी है,
मात्र  कुछ  श्वासों  की धड़कती  रवानी है.

*स्वरचित- अशोक प्रियबंधु
हजारीबाग, झारखंड*

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मुक्तक

*स्वरचित- अशोक प्रियबंधु हजारीबाग, झारखंड*