
जगकर, फिर घोर निंद्रा में कौन सोता है.
युग बीते पर ऐसा मंजर न देखा कभी.
आज पता नहीं, शव किसकी कौन ढोता है.
हाहाकार मचा है, मौत कर रही नर्तन,
काम कुछ न आ रही दवाई, न भजन-कीर्तन.
हे परमपिता! देर न कर, दुख हर, यह न पूछ,
आज पुकारने वाला तू कौन होता है.
*स्वरचित- अशोक प्रियबंधु
हजारीबाग, झारखंड*
बहुत ही शानदार
ReplyDeleteबहुत खूब.. प्रणाम सर
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