मुक्तक



निशा  के  इस   सन्नाटे  में  कौन  रोता  है,
जगकर,  फिर  घोर निंद्रा में कौन सोता है.
युग  बीते  पर  ऐसा  मंजर  न  देखा  कभी.
आज पता नहीं, शव किसकी कौन ढोता है.

हाहाकार   मचा  है,  मौत   कर  रही  नर्तन,
काम कुछ न आ रही दवाई, न भजन-कीर्तन.
हे परमपिता! देर न कर, दुख हर, यह न पूछ,
आज   पुकारने   वाला  तू   कौन   होता   है.

*स्वरचित- अशोक प्रियबंधु
हजारीबाग, झारखंड*

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समय सबके पास 24 घंटे

मुक्तक

*स्वरचित- अशोक प्रियबंधु हजारीबाग, झारखंड*